डाॅ ज़ुबिआ की कहानी
Hold your judgment until you'll finish ...!
पिता की बागी बेटी भाग गई।
पिता की बागी बेटी भाग गई।
तमाशा बहुत हुआ, शोर शराबा हुआ, कीचड़ उछाला गया कि जवान बेटी एक लड़के के साथ भाग गई। ऐसा वाक्या सुनकर भी मन दुखी हो जाता है।।
बीते दिनों ऐसी दो घटनाएं हुई जो मेरे जहन में घर कर गई ।
•पहली :
भजप विधायक की बेटी साक्षी मिश्रा का भागना जो लगभग सभी न्यूज़ चैनल के लिए मुख्य बिन्दु था।
•दूसरा :
एक पाकिस्तानी सीरियल "यकीन का सफर" जो इत्तेफाक से मैंने देखा, जिसमे भी एक 16 वर्ष की मासूम लड़की ज़ुबिआ का घर से भाग जाना।
फिर क्या था दिमाग़ की सुइया अटक गई कि आखिर लड़किया जिस घर मे पैदा होती है, कभी जिन माँ बाप के एक पल आँखों से ओझल होने पर बचपन मे वो रो-रोकर बाढ़ ला देती थी, ऐसी क्या जरुरत आन पड़ती है जो उसी घर से भाग जाती है।
शुरुआत साक्षी मिश्रा कि प्रेम कहानी से करते है..... देखने पर साक्षी का व्यक्तित्व काफ़ी बोल्ड नज़र आता है, पड़ी लिखी भी है। पर उनके स्वाभाव मे इतना विद्रोह आया कहाँ से? एक दिन मे तो कोई बेटी बागी हुई नहीं होगी। फिर भी इस केस मे मैंने साक्षी को ही दोषी समझा...
बेटी हो या बेटा विचारों मे माँ बाप से थोड़े बहुत टकराव तो हो ही जाते है। फिर भी माँ बाप ही तो है जिसने उसे बोलना और तर्क शील बनाया है, उसे पंख भी माँ बाप ने दिए है।
' तो बात साफ हो गई थी कि गलती विधायक कि बेटी की ही है।। '
उनही दिनों इत्तेफाक से मोबाइल मे स्टोर कूकीज ने मुझे एक पाकिस्तानी सीरियल लक्षित किया। बिना किसी पृष्ठभूमि को जाने उस धारावाहिक को देखना शुरु कर दिया मैंने। कहानी मे ट्विस्ट तब आया जब धीरे धीरे मेरी मनोवृत्ति मे परिवर्तन आने लगा। अब तक जो मात्र भागने के कार्य और उनके परिणामों के प्रति जो निंदात्मक पूर्वाग्रह था वह मचल गया, ऐसे कार्यों के पीछे कि वजह को समझने।
साथ ही नजर दौड़ने लगी अपने इर्द गिर्द हुई ऐसी ही कई घटनाओ में और मन उतारू हो गया उनका विश्लेषण करने में।।
" डॉ ज़ुबिआ खलील "... जो इस पाकिस्तानी धारावाहिक कि मुख्य पात्र है। जब वह मात्र 16वर्ष की थी तो अपने स्कूल के बहाने से एक लड़के के साथ भाग गयी। ज़ुबिआ बेहद मासूम, हसमुख, खूबसरत और होनहार थी। इन गुणों के साथ ही वह काफ़ी डरी सहमी भी रहा करती थी।
ज़ुबिआ के भागने की वजह उसके साथ हो रहा बेगैरत सा सुलूक था। पर दूर से देखकर कोई यही कहेगा कि ज़ुबिआ को उसके पिता, पाकिस्तान जैसे देश मे रहते हुए भी पढ़ा रहे है, उसे जन्म दिया, उसके पास जो भी ऐशो आराम कि चीज़े है वह उसके पिता ने ही दिलाई है, तो बेगैरत सुलूक कैसा?
पर क्या बस ये पदार्थवादी चीज़े ही काफ़ी है, भावनात्मक लगाव के बिना।
ये तो ऐसा तर्क देना हो गया... कि पहले के युग मे बेटी होते ही उसके पर काट दिए जाते थे, कम से कम हमने उसके पर नहीं कटे और देखों,... क्योंकि हमने उसके पर नहीं काटे तो पिंजरे मे बंद रहना ही उसकी नियति है।
जनाब ऐसा करके संघर्ष और बढ़ जाएगा। माता पिता संघर्ष करेंगे ताकि वो पिंजरा डीला ना हो पाए और बेटी संघर्ष करेंगी, पिंजरा छूटते ही आसमान मे बेरोकटोक उड़ान भरने के लिए। इस संघर्ष का नतीजा होगा भावनात्मक टकराव, कम्युनिकेशन गैप, जनरेशन गैप।
शायद जब एक बेटी के जेहन मे ये बात पूरी तरह बैठ चुकी होती है कि ये घर उसका नहीं... और ऐसी भावनाए आये भी कैसे न क्योंकि जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा उसका ये सुन कर बीता होता है कि ये सब यहाॅ नहीं चलेगा अपने ससुराल जा कर करना, अक्सर ऐसे ताने देने वाले लड़की की अपनी माँ या परिवार के सदस्य होते है। बचपन से ही एक बात जेहन मे बैठा दी जाती है कि ये घर जहाँ वह पैदा हुई है वह उसका नहीं है। नसीहतों के नाम पर लगभग उसकी हर मुमकिन इच्छा दबा दी जाती है और साथ ही ऐसे मत हसो, पराए घर जाना है। ऐसे मत चलो, पराए घर जाना है। तर्क शक्ति हो भी तब भी गूंगी हो जाओ क्योंकि पराए घर जाना है। पराए घर कब जाएगी पता नहीं पर ये खुद का घर जरूर पराया लगने लगे।
ज़ुबिआ भी घर से ना भागति यदि कोई उसके सूने मन को समझता।
हाँ! लड़कियों कि सीमा होती है, ये समाज ने तय कि है.. लड़किया अपनी सीमा ख़ुशी से स्वीकार कर भी लेती है, जब तक ये सीमाए उन पर जबरदस्ती ना थोपी जाए।
अभिवावको को उन्हें सीमाओं का ज्ञान करना होगा और सीमा पार करने का दुष्परिणाम भी समझाना होगा। उन्हें डराए नहीं, जब पंख विकसित हो रहे हो तो उन्हें प्रशिक्षण दें नियंत्रित उड़ान का। इस पर भी यदि कोई गलती कर बैठे सीमा लाँघने कि तो उसे ऐसे दौर मे कैसे समहलना है ये सिखाये।
हाँ, इतना शिक्षण प्रशिक्षण देने मे समय और मेहनत दोनों ही लगेगी.. पर जो अभिवावक इस मेहनत से बचेंगे तो वे तैयार रहें, किसी दिन उनका रचा पिंजरा खुल ही जाएगा और तब अंदर का पक्षी जरूर उड़ेगा... साथ ही वो उड़ान शिक्षण रहित बेलगाम उड़ान होगी। जिसमे आपके प्राणो से प्यारा पक्षी निश्चित गिरेगा और घायल भी होगा, पर तब आप भी उस पीड़ा से नहीं बच पाएंगे।
अब यदि इस घटना से समाज मे वाद विवाद छिड़ जाए और अधिकतर ये मान ले कि..
भगवान ऐसा पक्षी किसी को ना दे;
कोई कहे पिंजरे कि मजबूती और बढ़ाओ;
या अच्छा होता, पैदा होते साथ ही उसके पर काट दिए होते ।।
इस दृष्टिकोण में, कोई ध्यान ही नहीं दे रहा कि यदि बेटी के जीवन मे खालीपन है तो वह मन कि शून्यता कम करने किसी को जरूर तलाशेगी। यदि माँ, बहन, भाभी, चाची या परिवार का कोई भी सदस्य इस मन कि शून्यता को समझता है तो ठीक है... वरना, जिंदगी जीने किसी बाहर के इंसान को वह जरूर तलाशेगी।
मतलब साफ है, ... एक बेटी ने गलत काम किया वाकई कसूरवार वहीं है, पर गुनाह कि पृष्ठभूमि उसके अपने परिवार ने तैयार कि थी।
बड़ो और बच्चों दोनों कि ही गलती के बाद उसे सुधारा जा सकता है... " तभी तो भागी हुई ज़ुबिआ डॉ ज़ुबिआ बनी "... !
यदि गलती होने के बाद अभिवावक बच्चे को गलती का एहसास करा कर चक्रवीयु से बाहर निकलने में मदत करें, ना की उसे जीवन भर उसी गलती कि सजा देते रहें ।।
भागी हुई ज़ुबिआ से 'डॉ ज़ुबिआ' बनने का सफर आसान तो नहीं रहा होगा, पर जिंदगी तो सभी के लिए सख्त ही है ।।
रुनझुन 😘
Bhut Shandar 😘
ReplyDeleteThanks gandhi🥰
DeleteVery important message need to understand and implement by society.
ReplyDeleteGreat work continue writing unless the change has come. Wishes with you.💐🙏
Great message!@Runjhun
ReplyDeleteYour pen is your sword. Keep writing such blogs.